Published 20:16 IST, July 5th 2024
OPINION: लोकसभा चुनाव 2024 जनादेश- क्या केवल विकास के जरिए देश में चुनाव जीता जा सकता है?
रतन शारदा कहते हैं कि यह 'सबका साथ सबका विकास' है, जिसमें जाति या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है।
- विचार
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New Delhi: 2024 के चुनावों के नतीजों ने विभाजनकारी राजनीति के जवाब के रूप में आर्थिक विकास के समर्थकों के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है। 2014 से 2024 सबसे तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था का काल था, जिसमें वैश्विक महामारी कोविड के कारण दो साल का बड़ा झटका लगा, जिससे कई अर्थव्यवस्थाएं ढह गईं। यह समाज में छोटे से छोटे और बड़े से बड़े दोनों तरह के बदलावों का दौर था, जिसमें निचले तबके की आबादी को आर्थिक विकास के नए मॉडल का व्यापक लाभ मिला। यह वह दौर था जिसमें बड़े पैमाने पर सुधार की नीतियां और बुनियादी ढांचे के लिए बड़ा उछाल देखा गया। इसने उत्तर पूर्व क्षेत्र को अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में विकास के दम पर मुख्यधारा में शामिल होते देखा। इस अवधि में 25 करोड़ संकटग्रस्त गरीबों को गरीबी से बाहर निकाला गया, करोड़ों लोगों को उस स्पीड और दक्षता से डिग्निटी ऑफ लाइफ का फायदा दिया गया जो पहले 70 वर्षों में कभी नहीं देखा गया था। यह 'सबका साथ सबका विकास' था, जिसमें जाति या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था। इसके बावजूद BJP को उस तरह से सफलता नहीं मिली जैसी मोदी जी को उम्मीद थी।
मतदाताओं के इस अजीब व्यवहार ने कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों को हैरान कर दिया है। अमेरिका में अर्थव्यवस्था की स्थिति राष्ट्रपति के लिए या तो सबसे बेहतर परिणाम लाकर दे सकती है या पूरी तरह बिगाड़ भी सकती है। पहली बार अमेरिकी चुनाव अर्थव्यवस्था की स्थिति पर नहीं, बल्कि जागरुक एजेंडे पर लड़े जा रहे हैं। वहीं, भारत में एक सफल अर्थव्यवस्था सत्ता में आपकी वापसी की गारंटी नहीं देती। मैंने पहले भी कहा है- 'अच्छी अर्थव्यवस्था जरूरी नहीं है कि अच्छी राजनीति भी हो।'
PV नरसिम्हा राव मिक्स्ड इकोनॉमी मॉडल, जिसे रूसी मॉडल पर आधारित समाजवाद भी कहा जा सकता है, को उखाड़ फेंककर भारतीय अर्थव्यवस्था को बदलने के बावजूद चुनाव हार गए। अटल बिहारी वाजपेयी ने उदारीकृत अर्थव्यवस्था को सुधारित कानून की ठोस नींव और स्पष्ट सरकारी दृष्टिकोण देकर इसके लाभ को संगठित किया। उन्होंने हमारे बुनियादी ढांचे के आधुनिकीकरण और विस्तार की महत्वाकांक्षी योजनाओं के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को जीवंत बना दिया। यह एक ऐसा विचार था जिस पर समाजवादी कांग्रेस के बचे हुए लोग हंसते थे। हमने हाई ग्रोथ रेट देखी जो UPA1 तक भी कायम रही। वो हार गए। राज्य की राजनीति में पश्चिम बंगाल में तीन दशकों तक कम्युनिस्ट शासन और उसके बाद एक और दशक तक TMC की दिशाहीन दमनकारी नीतियों के कारण पश्चिम बंगाल शीर्ष से धरातल की ओर चला गया।
चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश के महत्वाकांक्षी डिजिटलीकरण और आधुनिकीकरण के साथ अविभाजित आंध्र प्रदेश को एक नया जीवन दिया। वह सत्ता में नहीं लौटे। अपवाद के रूप में मोदी जी ने दृढ़ लेकिन उत्तरदायी शासन और आर्थिक विकास के साथ गुजरात में लगातार तीन बार जीत हासिल की। उनकी विरासत अभी भी जीवित है और गुजरात में अभी भी BJP का शासन है, हालांकि सरकार कमजोर है। यहां एक छिपा हुआ मैसेज है। मोदी जी और BJP टिके रहे क्योंकि मूल हिंदुत्व भावना उनके मतदाताओं को एकजुट रखती है। अगर केवल विकास को आधार बनाया जाता तो शायद वो काम नहीं करता।
हालिया चुनाव पर वापस आते हुए हमें सुराग मिलते हैं कि क्यों बड़ी संख्या में मतदाताओं ने धर्म और कुछ क्षेत्रों में जाति को मतदान के मानदंड के रूप में चुना। मुसलमानों को मोदी सरकार के कल्याणकारी उपायों से बेहिसाब लाभ मिला। वे यह भी जानते हैं कि UPA की अपनी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया था कि कांग्रेस और उसके सहयोगियों की धर्मनिरपेक्षता से मुसलमानों को कोई फायदा नहीं हुआ। सामाजिक परिवेश की ओर ध्यान दें तो गलत प्रचार के बावजूद दिल्ली को छोड़कर शायद ही कोई गंभीर सांप्रदायिक दंगे हुए थे, जो कुछ विपक्षी राजनेताओं द्वारा कराए गए थे, जैसा कि जांच से पता चला है। मुस्लिम महिलाओं को पीछे धकेलने वाले पर्सनल लॉ से आजादी मिली।
यहां BJP के सामने असमंजस ये है - 'अगर मतदाताओं को जाति और धर्म के नाम पर आसानी से लुभाया जा सकता है, तो विकास की बात क्यों करें?' मुस्लिम समुदाय के कल्याण के लिए मोदी जी द्वारा की गई मेहनत का क्या फायदा? अगर लोग धर्म और जाति की छोटी सोच के आधार पर वोट देने जा रहे हैं तो हम आर्थिक कारकों पर इतनी गंभीरता से चर्चा क्यों करते हैं? बेहतर होगा कि ऐसी सरकार का आनंद लिया जाए जो कोई काम नहीं करती, विकास की कोई बात तक नहीं करती और फिर वोट पाने के लिए कुछ काल्पनिक लाभ की बात कर सांप्रदायिक और जाति की राजनीति की जाए?
न्यूज रिपोर्टर के कई वीडियो और क्लिप में ये स्पष्ट सबूत मिलते हैं, जिसमें मुसलमानों ने खुले तौर पर विभिन्न पत्रकारों से कहा था कि उन्हें मोदी जी के कल्याणकारी उपायों से लाभ हुआ है, लेकिन वे कांग्रेस या उसके सहयोगियों को वोट देंगे। जंगल में आग की तरह फैली फर्जी खबर से SC/ST समाज के होश उड़ गए कि आरक्षण हटा दिया जाएगा। उन्होंने न तो मोदी जी के आश्वासनों को सुना और न ही संविधान की भावना के साथ कभी खिलवाड़ न करने के BJP के रिकॉर्ड को सुना। मतदाताओं को भी इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि वे बेहतर जिंदगी चाहते हैं या सिर्फ धार्मिक खेल-कूद।
इसके समाधानों में से एक वास्तविक निष्पक्ष धर्मनिरपेक्षता का पालन करना हो सकता है, जो BJP के आदर्श वाक्य - 'सभी के लिए न्याय, किसी का तुष्टिकरण नहीं' को फॉलो करता हो, जिसे आडवाणी ने गढ़ा था। अल्पसंख्यकों के लिए विशेष योजनाएं केवल गरीब हिंदुओं की भावनाओं को आहत करती हैं। चाहे वह मुस्लिम परिवार की बेटी की शादी के समय दी जाने वाली एक निश्चित राशि हो, या मुस्लिम कारीगरों पर केंद्रित हुनर हाट हो, गरीब हिंदू या कारीगर उन नीतियों पर सवाल उठाता है जो उनके खिलाफ भेदभाव करती हैं।
मोदी जी ने मुसलमानों से यह सोचने की अपील की थी कि क्या वास्तविक कल्याणकारी उपायों की तुलना में नारेबाजी या केवल मस्जिदों या वक्फ के लिए जमीन जैसे धर्म आधारित मुद्दों से उन्हें कोई मदद मिलेगी। लेकिन लगता है इस अपील का जमीन पर कोई असर नहीं हुआ।
क्या BJP को धर्मनिरपेक्षता की दिखावटी बातों से बहुसंख्यकों के विपरीत ध्रुवीकरण के आसान रास्ते पर काम करना चाहिए, या अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव वाले गैर-पक्षपातपूर्ण विकास के साथ हिंदुत्व और BJP के प्रति गहरे पूर्वाग्रह को बदलने का प्रयास करना चाहिए? BJP मुस्लिम बहुल इलाके से भी किसी मुस्लिम को चुनाव नहीं जिता सकती।
क्या BJP के लिए हिंदुओं की पीड़ा दूर करना बेहतर नहीं होगा? ऐसी समस्याएं जो अन्य समुदायों को प्रभावित नहीं करतीं लेकिन हिंदुओं को प्रभावित करती हैं? उदाहरण के लिए, BJP हिंदू मंदिरों को मुक्त कराने और उन्हें जल्द से जल्द हिंदू समाज को सौंपने की दिशा में काम करती है तो इससे हिंदुओं की कई समस्याएं हल हो जाएंगी, जैसे धार्मिक तरीके से मंदिर प्रबंधन, गुरुकुलों का विकास, भक्तों के योगदान के साथ धार्मिक कार्यक्रम चलाकर सनातन की दिशा में विकास कार्य। अगर BJP पूरी तरह से आगे बढ़ना चाहती है, तो वह अनुच्छेद 25 से 30 की भेदभावपूर्ण प्रकृति को बदल सकती है और उन्हें धर्मनिरपेक्षता या सर्व पंथ समभाव की सच्ची भावना में यूनिवर्सल रूप से लागू कर सकती है। BJP शास्त्री जैसी संस्कृत की डिग्री को मान्यता दे सकती है जो पहले पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री के बराबर होती थी।
BJP नए वक्फ बोर्ड अधिनियम को निरस्त और डिजाइन कर सकती है जिसने इस्लामी निकायों को जमीन हड़पने की निर्बाध शक्तियां दी हैं और यह हर न्यायिक मानदंड के खिलाफ है। इस कानून से भारी अशांति पैदा होने की संभावना है।
अल्पसंख्यकों को शिक्षा के अधिकार का हिस्सा क्यों नहीं बनना चाहिए? कुछ अल्पसंख्यक संस्थान बहुत उच्च गुणवत्ता वाले हैं। बच्चों को शिक्षित करना अकेले बहुसंख्यक समुदाय का कर्तव्य नहीं हो सकता। प्रत्येक नागरिक को राष्ट्रीय हित में योगदान देना चाहिए।
ऐसे कई अन्य मुद्दे हैं जिन पर बेहतर समाज की दिशा में काम करने के लिए ध्यान देने की आवश्यकता है। जनसंख्या नियंत्रण एक और जरूरी काम है जिसे हर धर्म के लिए समान रूप से पूरा करना होगा और इसे लागू करना होगा। विभिन्न भारतीय न्यायालयों द्वारा मांग की गई समान नागरिक संहिता गैर-भेदभावपूर्ण है और इसे लाया जा सकता है।
अल्पसंख्यकों को यह महसूस करने की आवश्यकता है कि उनके पास वीटो शक्ति नहीं है, या राष्ट्रीय भलाई में योगदान किए बिना विशेषाधिकारों का आनंद लेने का अधिकार नहीं है। यहां सुझाए गए कदम धीरे-धीरे उनके रवैये में बदलाव ला सकते हैं। किसी भी नागरिक या नागरिकों के समूह को अपने लाभ के लिए लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष कानूनों का शोषण करने का अधिकार नहीं है, साथ ही धार्मिक कार्ड का उपयोग करके भारतीय लोकतंत्र को बंधक बनाने का अधिकार नहीं है। सांप्रदायिक राजनीति से ऊपर उठने और राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल होने के लिए उनके साथ बातचीत जारी रहना चाहिए, इस स्पष्ट समझ के साथ कि विशेषाधिकारों के लिए एकतरफा रास्ता नहीं होना चाहिए।
Updated 22:42 IST, July 5th 2024