Published 18:52 IST, July 19th 2024
EXPLAINER/ 25 Years of Kargil War: नंगे पैर, -10 डिग्री तापमान...जब 'नींबू साहब' ने दुश्मनों के छुड़ाए थे छक्के
25 Years of Kargil War: ये स्टोरी है एक ऐसे वीर बहादुर की, जिसे उनके दोस्त प्यार से 'नींबू साहब' कहकर बुलाते थे।
- रक्षा
- 4 min read
25 Years of Kargil War: नेइकेझाकुओ केंगुरुसे का जन्म 15 जुलाई 1974 को नागालैंड के कोहिमा जिले के नेरहेमा गांव में हुआ था। वह सपनों और साहस से भरे दिल के साथ बड़े हुए। उनके अपने उन्हें प्यार से 'नीबू' और उनके दोस्त उन्हें 'नींबू साहब' कहकर बुलाते थे।
उनकी यात्रा जलुकी के सेंट जेवियर स्कूल से शुरू हुई, जिसके बाद उन्होंने कोहिमा साइंस कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। सैनिक की वर्दी पहनने से पहले उन्होंने 1994 से 1997 तक कोहिमा के सरकारी हाई स्कूल में एक शिक्षक के रूप में कार्य किया।
जब हवा का बदला रुख
12 दिसंबर 1998 को नेइकेझाकुओ के जीवन में बदलाव की बयार बह गई, जब उन्हें भारतीय सेना की आर्मी सर्विस कोर्प्स में नियुक्त किया गया। उनकी पहली पोस्टिंग उन्हें जम्मू-कश्मीर के चुनौतीपूर्ण इलाकों में ले गई, जहां साहस एक रोजमर्रा की जरूरत थी। 1999 में कारगिल युद्ध छिड़ गया, जिसने युवा अधिकारी को संघर्ष की भट्ठी में धकेल दिया। राजपूताना राइफल्स बटालियन में एक जूनियर कमांडर, नीकेझाकुओ के अनुकरणीय नेतृत्व और अडिग भावना ने जल्द ही उन्हें विशिष्ट घातक प्लाटून की कमान दिला दी, जो उनकी असाधारण शारीरिक और मानसिक दृढ़ता का प्रमाण था।
फिर शुरू हुआ कारगिल युद्ध...
28 जून, 1999 की रात तनावपूर्ण सन्नाटे में डूबी हुई थी, जो दूर तक तोपों की गूंज से टूट रही थी। अपने घातक प्लाटून का नेतृत्व करते हुए कैप्टन केंगुरुसे को एक साहसी मिशन का सामना करना पड़ा। यह मिशन था- खतरनाक ब्लैक रॉक चट्टान पर एक भारी किलेबंद दुश्मन मशीन गन पोस्ट को बेअसर करने का। दुश्मन की स्थिति ने कई दिनों तक बटालियन की स्पीड को रोक दिया था, और इसे चुप कराना जरूरी था। चट्टान की खड़ी ढलान और दुश्मन की लगातार गोलीबारी ने इस कार्य को लगभग असंभव बना दिया था। फिर भी कैप्टन केंगुरुसे ने अपनी आंखों में दृढ़ संकल्प की चमक के साथ चुनौती को स्वीकार कर लिया।
रात के आकाश की भयानक चमक के तले पलटन ने अपनी खतरनाक चढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान दुश्मन की गोलाबारी उन पर बरसने लगी, जिससे गंभीर नुकसान हुआ। कैप्टन केंगुरुसे के पास एक ग्रेनेड फटा, जिसके टुकड़े उनके पेट में घुस गए। वो लहूलुहान थे, लेकिन विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपने लोगों को आगे बढ़ने का आग्रह किया। पहले बंकर पर पहुंचकर कैप्टन केंगुरुसे ने दृढ़ संकल्प के साथ एक रॉकेट लॉन्चर दागा, जिससे दुश्मन का गढ़ नष्ट हो गया। उनके निडर कृत्य ने उनके सैनिकों को उत्साहित किया और उनमें आगे बढ़ने की ताकत भर दी।
जब नंगे पैर चढ़ गए चट्टान...
जैसे ही वे अंतिम रुकावट के पास पहुंचे, उनके सामने एक ऊंची चट्टान की दीवार खड़ी थी, जो पलटन और उनके उद्देश्य के बीच खड़ी थी। 16,000 फीट की ऊंचाई, ठंडी हवा और -10 डिग्री सेल्सियस का तापमान भी कैप्टन केंगुरुसे के मनोबल को घटा नहीं सका। उन्होंने एक निर्णय लिया। बेहतर पकड़ के लिए उन्होंने अपने जूते उतारे और नंगे पैर ही चट्टान पर चढ़ गए। उनका संकल्प उसके पैरों के नीचे के पत्थर की तरह अडिग था।
दो दुश्मन सैनिकों को आमने-सामने की लड़ाई में उन्होंने अपने कमांडो चाकू से परलोक भेज दिया। लेकिन, जैसे ही वह तीसरे बंकर की ओर बढ़े, गोलियों की बौछार ने उन पर हमला कर दिया, जिससे वह चट्टान से नीचे गिर पड़े और अंत तक एक नायक बने रहे। कैप्टन केंगुरुसे के अंतिम बलिदान ने उनके लोगों के भीतर एक दृढ़ संकल्प को प्रज्वलित कर दिया। उनकी बहादुरी से उत्साहित होकर उनकी पलटन आगे बढ़ी, दुश्मन की स्थिति पर कब्जा कर लिया और अपना मिशन पूरा किया। उनकी अदम्य भावना और नेतृत्व ने एक अमिट छाप छोड़ी, जिससे उनके साथियों को दुर्गम बाधाओं पर विजय पाने की प्रेरणा मिली।
महावीर चक्र से हुए सम्मानित
उनकी अद्वितीय बहादुरी और निस्वार्थ बलिदान के सम्मान में कैप्टन नेइकेझाकुओ केंगुरुसे को मरणोपरांत भारत के दूसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। आपको बता दें कि 25 वर्ष की अल्पायु में कैप्टन नेइकेझाकुओ केंगुरुसे ने वीरता के सार को मूर्त रूप देते हुए अपना जीवन बलिदान कर दिया। उनकी कहानी, जो इतिहास के पन्नों में अंकित है, अपने राष्ट्र की रक्षा करने वालों के बलिदान की मार्मिक याद दिलाती है। कैप्टन केंगुरुसे की बहादुरी और बलिदान आने वाली पीढ़ियों के लिए देशभक्ति और साहस की लौ से प्रेरित होकर उनका मार्ग प्रशस्त करता है।
Updated 23:33 IST, July 25th 2024