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पब्लिश्ड 19:18 IST, July 19th 2024

संसद से सड़कों तक 'जय फिलिस्तीन'... सौहार्द से समझौता क्यों?

हर सियासी पार्टी अपने वोट बैंक के हिसाब से सामाजिक दीवार पर हथौड़ा चलाने की कोशिश करती दिखाई देती है। कोई हिंदू तो कोई मुस्लिम के पक्ष में दांव चल रहा है।

Reported by: Dheeraj Singh
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jai palestine from parliament to street
संसद से सड़कों तक 'जय फिलिस्तीन' | Image: PTI

मजबूत लोकतंत्र संविधान पर टिका है और संविधान सांप्रदायिक सौहार्द की धुरी पर, लेकिन जब भी कोई मुबारक वक्त आता है या यूं कहें कि लोग अपने धार्मिक जलसे में मग्न होते हैं… सियासतदानों की नज़रें लग जाती हैं। नजरें ऐसी कि तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक सब कुछ बेकार साबित होता है। और फिर शुरू होता है ऐसे नारों का बोलबाला जो संविधान की आत्मा को चीरता लहूलुहान कर जाता है। मानो ऐसा लगता है कि हर त्योहार-पर्व के इंतज़ार में सियासी पार्टियां बैठी हैं। त्योहार किसी भी धर्म का क्यों ना हो उससे सियासतदानों को फर्क नहीं पड़ता। बस उन्हें इंतज़ार होता है उन फेस्टिवल का जिस पर वो अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक सकें। पहले ऐसे त्योहार और पर्व का इंतज़ार रेहड़ी वाले, होटल वाले, सर्कस वाले किया करते थे। लेकिन अब सियासी पार्टियां भी अपना फन लेकर बैठी रहती हैं ताकि समाज में ज़हर फैला सकें, सदियों के चले आ रहे भाईचारे का कत्ल कर सकें, गंगा-जमुनी तहजीब का गला घोंट सकें और सियासी पार्टियां अपने इसी मकसद में कामयाबी की ओर अग्रसर है। एक काफी पुरानी कहावत है कि एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है। और सियासदान इसी नीति को सालों से अमल करते आए हैं, जिसका असर अब दिखने लगा है।

25 जून 2024। 18वीं लोकसभा की कार्यवाही के दूसरे दिन संसद सदस्य के रूप में शपथ लेते वक्त खुद को मुसलमानों के सबसे बड़े रहनुमा मानने वाले ओवैसी साहब ने शपथ ग्रहण के दौरान 'जय फिलिस्तीन' का नारा दिया। वैसे 'जय फिलिस्तीन' बोलने का ना कोई मौका था और ना ही कोई दस्तूर। बस अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए शपथ ग्रहण के दौरान ये नारा लगा दिया। ओवैसी साहब को मालूम था कि इसका विरोध होगा। सो बीजेपी ने विरोध भी किया। और शायद ओवैसी भी यही चाहते होंगे कि उनके इस नारे पर सियासत हो और उनके वोट बैंक तक ये संदेश पहुंचे। ओवैसी के 'जय फिलिस्तीन' के नारे को संसद के रिकॉर्ड हटा लिया गया लेकिन उसका असर अब सड़कों पर दिख रहा है। यूपी के कानपुर में जुलूस तो मुहर्रम का था, लेकिन वहां झंडा फिलिस्तीन का लहराया जा रहा था। सिर्फ यूपी में ही नहीं, बिहार के नवादा और दरभंगा में भी 'जय फिलिस्तीन' के नारे लगाए गए। जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में भी मुहर्रम के जुलूस में फिलिस्तीनी झंडा दिखा। ऐसे में सवाल ये है कि ओवैसी संसद में 'जय फिलिस्तीन' तो बोल गए,संसद के रिकॉर्ड से भी हटा दिया गया लेकिन जो भोली भाली जनता है, जिसे नहीं मालूम कि ऐसा करने से क्या होगा, समाज पर क्या असर पड़ेगा, उनके ज़ेहन से इसे कैसे हटाया जाएगा? ओवैसी साहब को काबिल नेताओं में गिना जाता है और अगर ऐसे नेता बिलो द बेल्ट बयान देंगे, तो समाज में दुर्भावना बढ़ने की आशंका ज्यादा हो जाती है। ऐसे बयान समाज में सॉफ्ट प्वॉइज़न की तरह काम करते हैं। वैसे ये वहीं ओवैसी हैं जिन्हें ‘जय फिलिस्तीन’ कहने में कोई हर्ज़ नहीं है, लेकिन ‘भारत माता की जय’ बोलने में आपत्ति है।

असदुद्दीन ओवैसी के विवादित बयान

कुछ साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि नई पीढ़ी को भारत की शान में नारे लगाने का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। इस पर असदुद्दीन ओवैसी भड़के उठे और उन्होंने कहा था कि वो कभी ‘भारत माता की जय' नहीं बोलेंगे भले ही उनकी गर्दन पर कोई छुरी क्यों न रख दे। वैसे ही 2022 में यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान असदुद्दीन ओवैसी ने पुलिस तक को धमकी दे दी थी। और कहा कि पुलिस के लोग ये याद रखें कि हमेशा योगी सीएम और मोदी पीएम नहीं रहेंगे और हम मुसलमान वक्त के तीमार से खामोश जरूर हैं, मगर तुम्हारे जुल्म को भूलने वाले नहीं हैं। हम तुम्हारे जुल्म को याद रखेंगे। ओवैसी ऐसा भी कह चुके हैं कि इस्लाम ही सभी लोगों का घर है। अगर दूसरे धर्म के लोग इस्लाम अपनाते हैं, तो यह उनके लिए घर वापसी जैसा होगा। हर बच्चा मुस्लिम होकर ही जन्म लेता है। ऐसे ओवैसी के कई बयान हैं जो सामाजिक ताने बने को तोड़ने की कोशिश करते दिखते हैं।

सिर्फ ओवैसी ही नहीं, हर सियासी पार्टी में एक ऐसा नेता है, जो सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश करता है। चाहे वो बीजेपी हो या फिर चाहे कांग्रेस, या फिर कोई दूसरी पार्टी। हर सियासी पार्टी अपने वोट बैंक के हिसाब से सामाजिक दीवार पर हथौड़ा चलाने की कोशिश करती दिखाई देती है। कोई हिंदू के पक्ष में दांव खेल रहा है, तो कोई मुस्लिम के पक्ष में पेच चल रहा है। इस दांव-पेच का असर भले ही वोटों में दिखाई दे, लेकिन नतीजा ये होता है कि सियासदान खुलकर ऐसे बयान देने लगते हैं। क्योंकि सवाल वोट का, सवाल सत्ता का है और अगर पब्लिक ऐसे बयान देने वालों को बढ़ावा ना दे, सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने वालों का विरोध करें। ना केवल सड़कों पर, बल्कि वोट डालते वक्त भी, तब ऐसे बयानवीरों को सबक मिलेगा। और जो सियासी पार्टियां वोट बैंक की खातिर सौहार्द से समझौता कर रही हैं, वे लोग सही रास्ते पर आने के लिए मजबूर होंगे।

अपडेटेड 19:18 IST, July 19th 2024