Published 13:01 IST, February 3rd 2024
जीवन में गुरु अत्यंत आवश्यक है: श्री हित प्रेमानंद गोविन्द शरण जी महाराज
श्रीधाम वृंदावन के सुप्रसिद्ध रसिक संत श्री हित प्रेमानंद गोविन्द शरण जी महाराज (प्रेमानन्द बाबा) आज लाखों लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।
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श्रीधाम वृंदावन के सुप्रसिद्ध रसिक संत श्री हित प्रेमानंद गोविन्द शरण जी महाराज (प्रेमानन्द बाबा) आज लाखों लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। जिनके वचनों का श्रवण बहुत ही तन्मयता से आज हर आयु व वर्ग के लोग करते हैं जब कि युवा पीढ़ी उनके विशेष रूप से आकर्षित है। अपने वचनों से सबको मंत्रमुग्ध करने वाले प्रेमानंद जी महाराज अपने सद्गुरुदेव के प्रति अटूट श्रद्धा व निष्ठा से समर्पित रहते हैं। वृंदावनीय रसोपासना के अति पूजनीय सहचरी भावापन्न सिद्ध रसिक संत श्री हित गौरांगी शरण जी उनके प्राणाराध्य गुरु है। जो कि वृंदावन की प्रेम लक्षणा भक्ति के प्रकट में साक्षात् उदाहरण हैं। राधावल्लभ सम्प्रदाय के गोस्वामी जी से शरणागत मंत्र लेने के पश्चात महाराज जी ने परम पूज्य श्री हित गौरांगी शरण जी से ‘निज मंत्र’ की दीक्षा ली, जिससे श्रीजी की प्रिय ‘सहचरी, सखी या दासी’ के भाव के रूप में उपासना की यात्रा प्रारंभ हुई। प्रेमानंद जी महाराज हमेशा अपने सत्संग व एकांतिक संवाद में अपने सद्गुरुदेव भगवान् के बारे में अपनी भावनाएं व्यक्त करते रहते हैं। वे प्रायः अपने प्रवचनों में कहते हैं कि गुरु और गोविन्द दोनों एक ही हैं, मनुष्य शरीर में होने के बावजूद सद्गुरु मनुष्य नहीं होते अपितुस्वयं परब्रह्म परमात्मा ही हमारे कल्याण के लिये हमारी तरह रूप धारण करके आते हैं अतः गुरु को साक्षात् परब्रह्म ही समझना चाहिए। वे कहते हैं कि बिना गुरु-कृपा के परमार्थ मार्ग में कोई चल ही नहीं सकता वह चाहे भगवान् शंकर या ब्रह्मा जी के समान ही क्यों न हो, गुरु बिन भवनिधि तरइ न कोई, जौ बिरंचि संकर सम होई।
‘गुरु कृपा एव केवलम्’
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आज प्रेमानन्द जी महाराज को जो कुछ भी दिव्यता प्राप्त है वे उसे अपनी किसी साधना का फल नहीं बल्कि केवल गुरु कृपा प्रसाद ही मानते हैं। बाल्यावस्था से ही गृहत्याग कर १३ वर्ष अल्पायु में ही वे साधन पथ पर चल पड़े थे अतः अपने प्राप्त अनुभवों के आधार पर उनका इसी बात पर जोर रहता है कि केवल गुरु कृपा ।वे कहते हैं कि समस्त शास्त्रों में गुरु की उपयोगिता तथा महत्ता बतायी गयी है गुरु की अपार महिमा हैं, उनके द्वारा किए गए उपकारों की कोई सीमा नहीं होती। भारत में गुरु परम्परा युगों से चली आ रही है। सर्वसमर्थ परब्रह्म परमेश्वर होते हुए भी भगवान श्री रामचंद्र जी ने वसिष्ठ जी को एवं श्री कृष्णचंद्र जी ने महर्षि संदीपिनी को गुरु बनाया। अत एव साधन-मार्ग में सद्गुरुका बहुत बड़ा महत्त्व है। सद्गुरुदेव की कृपासे ही साधक को सिद्धि तक पहुँचने में सुगमता होती है; साधना में रुचि और उत्साह बढ़ता रहता है। गुरु-कृपापात्र के हृदय में ही यह अध्यात्म मार्ग प्रकाशित होता है । गुरु कृपा से ही जड़-चेतन ग्रन्थि का भेदन होता है। गुरु कृपा पात्र ही अध्यात्म की उँचाई पर चढ़ पाता है ।गुरु कृपा पात्र ही माया पर विजय प्राप्त करता है । गुरु कृपा पात्र को कोई भी विकार परास्त नहीं कर सकता क्योंकि विकारों का मूल देहाभिमान है और उसका मूल अज्ञान है उसकी निवृत्ति केवल गुरु कृपा से ही होती है बिना गुरु कृपा के साधक भ्रम का त्याग नहीं कर पाता है। गुरु के बिना मनका संशय नहीं जाता और साधनमें भी सुदृढ़ आस्था नहीं होती। साधक के अंदर बहुत से सूक्ष्म दोष होते हैं जो बिना गुरु कृपा के नष्ट नहीं होते हैं। साधन पथ पर चलने में आने वाली समस्त बाधाओं को केवल गुरु कृपा पात्र ही परास्त कर लक्ष्य की प्राप्ति कर पाता है । गुरु कृपा पात्र साधक को कोई भी विघ्न परास्त नहीं कर सकता । अत: किसी भगवत्प्राप्त, श्रेष्ठ, अनुभवी संत-महात्मा को गुरु बनाकर उनके शरणागत होकर उनके निर्देशन में ही साधक को साधना करनी चाहिए।
साधक के जीवन में गुरु की भूमिका
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परमार्थ पथ के पथिक साधक के जीवन में गुरुदेव का अनुशासन अत्यंत ही आवश्यक है।जो गुरु की अधीनता स्वीकार न कर मनमुखी उपासना करता है, वह सदैव मन का गुलाम बना रहता है, उसकी कोई आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती अंततोगत्वा उसे इस मार्ग से भ्रष्ट होना पड़ता है। आत्मकल्याण के इच्छुक उपासक को चाहिए कि वह सर्वप्रथम सद्गुरुदेव का वरण करे तत्पश्चात् उनके द्वारा प्रदत्त नाम, मंत्र, उपासना पद्धति में अनन्य हो जाए तथा अपना जीवन पूर्णरूप से उनके श्रीचरणों में समर्पित कर दे, जब आप गुरुदेव के हो गये तो कोई भी विघ्न या वाधा आपको परास्त नहीं कर सकती। गुरुदेव के दुलार और शासन से ही शिष्य का काम बनता है परंतु गुरु के दुलार करने पर तो चेहरे पर मुस्कुराहट रहती है और मुख से ‘जय हो गुरुदेव’ निकलता है लेकिन उनके शासन करने पर मन में प्रतिकूल भाव आने लगता है। जो प्रसन्नचित्त से गुरुदेव का शासन स्वीकार करता है, जिसको गुरुदेव का भय होता है वही शीघ्र कल्याण को प्राप्त होता है और जो गुरुद्रोह, गुरु अवज्ञा, गुरु का अपमान करता है उसके सारे सुकृत नष्ट हो जाते हैं वह लोक-परलोक दोनों जगह से भ्रष्ट हो जाता है।
गुरु आज्ञा का प्राणपन से पालन करना
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“गुरु बनाने से कल्याण नहीं होता, प्रत्युत गुरु की बात मानने से कल्याण होता है। गुरु बना लिया तो मन, वचन, कर्म से उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए यदि आप उनकी आज्ञा की अवज्ञा करते हैं तो वह तो स्वभाव से कृपालु हैं क्षमा करते रहेंगे पर वह आपके लिये शाप से भी ज्यादा भारी हो जाएगा।गुरुदेव तो सदैव अपने आश्रितजनों पर कृपा की वर्षा कर रहे हैं पर हम अहंकार की छत्र ओढ़े हुए हैं अर्थात् अपनी मान्यता, अस्तित्व, आग्रह, मनमानापन नहीं छोड़ पाते हैं,जिससे हम उनकी कृपावृष्टि में नहीं भीग पाते हैं। यदि वास्तविक गुरु कृपा से लाभान्वित होना है, इसी जन्म में भगवत् प्राप्ति करनी है तो अपनी महत्त्वबुद्धि, अपने अस्तित्व का विध्वंस कर पूर्ण रूप से गुरुदेव के हाथों में बिक जाओ | ”- श्री हित प्रमानंद गोविन्द शरण जी महाराज
12:32 IST, February 2nd 2024